Saturday, January 12, 2013

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला

मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.
तन के सम्बन्ध कैसे निभाऊँ भला?

प्रेम भी इक उलझता हुआ जाल है
मोह उससे बड़ा एक जंजाल है
वेदना के सिबा और कुछ ना मिला
हंस पड़ा तालियां पीट कर काल है

मन को ऐसा लगा जैसे जाता छला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

झूठ फैला तो सच ने गमन कर लिया
झूठ ने वश में धरती गगन कर लिया
छटपटाता रहा सत्य, रोया नहीं
अश्रु का आँख ने आचमन कर लिया

है भटकता लिए दर्द दिल में पला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुख भी क्या है भला; देह का भान है
धन भी दुनिया में बचने का अनुमान है
दुख परम् दिव्य है आरती की तरह
जिससे पाता मनुज वेद सा ज्ञान है

कौन है चोट खाकर नहीं जो ढला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

सुप्त है, शांत है, मौन अनुराग है
कर्म-कर्तव्य है किन्तु बैराग है
अर्थ सब व्यर्थ हैं इस जगत के अरे
सत्य अन्तर में जलती हुई आग है

अब क्या भटकेगी यह बुद्धि हो चंचला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

मौन भी जब स्वयं नाद होने लगे
बिन हिले होठ संवाद होने लगे
मध्य मेंं ज्योति की चमचमाती किरन
पंछी पिंजरे से आजाद होने लगे

मोल का कुछ नहीं दीप क्षण जो जला
मन का पंछी उड़ा दूर जाता चला.

No comments:

Post a Comment