Wednesday, January 23, 2013

संसद पर हमले का दोषी, अफजल भी बच जाता है

होली के रंग फीके लगते इन रंगो में क्या लाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं तो क्या देगी यह दीवाली।।
जब सीमा पर दीप बुझ रहे घेर रही काली छाया।
नेता गणित लगाते प्रतिदिन लाशों पर क्या-क्या पाया।।
रोज शांति का पाठ पढ़ाते हैं निर्दय, पाखंडी को।
कभी दण्ड दे सके न कायर घर में भी उद्दण्डी को।।
उनको क्या मिल रहा करें जो, सीमा की नित रखवाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं...........................................।।

फोड़ रहे वे बमें रात दिन, और जलायें घाटी को।
कंधे पर ले घूम रहे तुम गांधीजी की लाठी को।
क्या तुम मूढ़ो सोच रहे हो, क्या ऐसे बच जाओगे।
मरना तो तुमको भी होगा, बस पहले मरवाओगे।
घेर खड़ी है आज देश को, आतंकी छाया काली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं............................................। 

खुलेआम कर रहे वकालत जोे भारत में दुष्टों की।
तुमको फिर भी नहीं हो रही है अनुभूती कष्टों की।
संसद पर हमले का दोषी, अफजल भी बच जाता है।
मतपेटी को लूटने वाला गोली तक खा जाता है।
अब तुम निर्णय कर न सकोगे, नहीं आत्मा, तुम खाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं............................................।

अरे मूर्खो ध्यान करो कुछ क्यों शासन को ढोते हो।
हट जाओ सम्मान सहित ही क्यों वोटों को रोते हो।
क्यों बुझवाते दीप निरन्तर, क्यों करते मांगे सूनी।
आज नहीं तो कल होनी है, होनी है होली खूनी।
और भला तुम कहाँ जाओगे लहर चली गर मतवाली।
जब हृदयों को तृप्ति नहीं...........................................

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