Thursday, January 24, 2013

समीक्षात्मक टिप्पणी-ब्रजराज सिंह तोमर, आजाद नगर, हरदोई

कविता आत्मा की वाणी है। आत्मा चूकि परमात्मा का अंश है अतः इसकी वाणी शाश्वत होती है, उसका प्रभाव अमोघ होता है। इसी अमोघ प्रभाव के बल पर कवि अपने शब्दांकुश से काल-गपंद की चाल को नियंत्रित कर सकता है। वाणी की इसी शक्ति के प्रयोग से रत्नावली ने तुलसी की, विद्योत्रमा ने कालिदास की और रंगरेजिन ने आलम की जीवन धारा मोड़ दी थी। इसी शक्ति के बल पर प्रवीन राम के एक दोहे ने उसे अकबर के कामुक-चुंगल से मुक्त करा लिया था गंग के एक छप्पय ने अकबर से गोवध पर प्रतिबंध लगवा दिया था। बिहारी के एक दोहे ने राजा जय सिंह का दिमाग दुरुस्त कर दिया था और भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल को अपनी पालकी में कंधा लगाने हेतु बाध्य कर दिया था। काव्य-शक्ति के ऐसे ही और भी अनेक उदाहरण खोजे से मिल सकते हैं।
    कविता की इसी शक्ति से अभिभूत होकर श्री विवेकशील राघव जी ने उसके स्नेहांचल की शरण ग्रहण की। यद्यपि कविता और साहित्य के संस्कार उनमें जन्मजात रहे; किन्तु वे शब्दायित होने के लिए उचित अवसर की तलाश में रहे। इधर युवावस्था की तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ने इनके हृदय में एक आग सी उत्पन्न कर दी और-
    अंतर में जब आग जलेगी, कलम रोशनी तब उगलेगी
यह ध्रुव सत्य है। राघवजी के हृदय की आग कुछ कर गुुजरने की कुछ कर दिखाने की उत्कटता के रूप में सामने आई। जैसे काष्ठ मंे ज्वलनशीलता के समस्त तत्व विद्यमान रहते हैं केवल लौ छुआने भर की देर होती है उसी प्रकार विवेकशील के हृदय में स्थित ज्वल्यता को कवितायत करने के लिए कुछ प्रेरणाऐं अपेक्षित थीं। वे प्रेरणाऐं भी उन्हें सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक विडम्बनाओं और प्रशासनिक विद्रूपताओं आदि से मिलने लगीं। निरंतर गिरता हुआ राजनीतिक स्तर, मूल्यों का क्षरण, स्वार्थपरता, पदलोलुपता, धींगामुश्ती, भ्रष्टाचार ने राघवजी के हृदय को मथकर रख दिया। फलतः उनके भाव सहज रूप में कविता का रूप ग्रहण करने लगे और इन्हीं कविताओं का संकलन ‘अभी स्वप्न धूमिल हैं’ के रूप में हम सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
    पुस्तक के नाम से ही कवि के हृदय की आग को महसूस किया जा सकता है क्योंकि जिस रूप में कवि समाज और राष्ट्र को व्यवस्थित देखना चाहता है वैसा उसे दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा। भूतकाल में हम विधर्मी और विदेशी शक्तियों से पराभूत और प्रताडि़त होते रहे और जब लंबे संघर्ष के बाद देश स्वतंत्र हुआ तो उसे विभाजन का दंश झेलना पड़ा। कश्मीर समस्या शिरो-शूल बनकर व्यथित कर रही है। आतंकवाद, माओवाद, जातिवाद, महार्घता, नौकरशाही, कालाधन, रिश्वतखोरी आदि कुछ एसी विकट समस्याऐं हैं जिनसे राष्ट्र निरंतर जूझता आ रहा है और इस जूझ का अंत होता दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह आक्रोश कवि की रचनाओं में भी प्रतिबिंबित होता दिखाई पड़ रहा है।
    उक्त आक्रोश से उद्वेलित होकर कवि ने भारतदर्शन, जाग उठो अब तो वीरो और युवा जैसी रचनाओं का प्रणयन किया क्योंकि कवि को भली-भांति ज्ञात है कि युवा देश के भविष्य हैं। देश को सही दिशा देने की उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है युवाओं में ओज, तेज, शोर्य, शक्ति, उत्साह, उमंग सभी कुछ बिद्यमान है। अतः वे यदि संगठित होकर प्राण-पण से जुट जाए तो देश का नक्शा बदल सकता है। राष्ट्र की जो छवि आज हमारी कल्पना में है-युवा शक्ति उसे साकार करने की क्षमता रखती है। जाग उठो अब तो वीरो’ वाली कविता में कवि ने युवाशक्ति को इसीलिए ललकारा है।
    हमारा सबका अनुभव है कि विदेशी शासक चले गए किन्तु हमारे आचरण, व्यवहार, परम्पराओं पर वे अपनी संस्कृति की ऐसी छाप छोड़ गए हैं जो मिटने के बजाय दिनों-दिन गहरी होती जा रही हैं। हम सब अंग्रेजी और अंग्रेजियत के शिकार हो रहे हैं। राजनीतिक गुलामी से तो मुक्ति मिली पर हम उनकी सांस्कृतिक गुलामी में पूरी तरह जकड़ गए हैं। छोड़ दो अब तो गुलामी में कवि ने लोगों का ध्यान इसी ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में हिन्दी भारत मां की बिन्दी भी एक महत्वपूर्ण कविता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम अपनी जननीतुल्य, पूज्य मातृभाषा (हिन्दी) की घोर उपेक्षा कर रहे हैं और अंग्रेजी को सिर माथे पर बिठाए हैं। अंग्रेजी को हम संभ्रान्त होने का मानदंड मान रहे हैं।
    आजकल की राजनीति के कर्ताधर्ता हमारे नेता हैं किन्तु नेताओं का आचरण आज प्रश्नों के घेरे में है। इन्हीं प्रश्नों को समेटकर कवि ने भारतीय नेता कविता रची है। बड़े तीव्र कटाक्ष किए हैं कवि ने इस कविता में। गांधी जी का प्रसिद्ध कथन है रीयल इण्डिया लिव्स इन विलेजेज गांधी जी की यह उक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, राघव जी ने भी गांधी जी की इस उक्ति से सहमति व्यक्त करते हुए एक कविता में गांव और शहर की तुलना करते हुए गांव की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। भले ही वोटबैंक की राजनीति और शहरी सभ्यता ने ग्राम्य-संस्कृति को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है किन्तु फिर भी गांवों में जीवन की सहजता और सरलता के दर्शन आज भी किये जा सकते हैं। इस प्रकार कवि की इस कृति की समस्त रचनाओं का अवगाहन करने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं कि कवि में राष्ट्रवाद, राष्ट्र-भाषा और स्वदेशी भावना के प्रति प्रेम कूट-कूट कर भरा है। इन सभी भावों की सफल अभिव्यक्ति उनके काव्य में झलकती है। अपनी बात को सशक्त और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता से कवि विभूषित है।
    शब्दों पर अच्छी पकड़ और भाषा पर कवि का अच्छा अधिकार है। शब्द-सामथ्र्य की समझ में कवि निष्णात है फिर भी उन्होंने बोधगम्यता सर्वत्र बनाए रखी है। कवि का काव्य क्लिष्टता दोष से सर्वथा रहित है।
    जहां तक अलंकृति का प्रश्न है उस संबंध में पंत जी की दो पंक्तियां याद आती हैं-
        तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार
        वाणी तुझको चाहिए और क्या अलंकार।।
    कवि विवेकशीलजी ने इसी आदर्श का अनुसरण किया है वे अलंकारों के फेर में ज्यादा नहीं पड़े, सहज रूप में कोई अलंकार बन पड़ा तो उससे परहेज भी नहीं किया।
    सारांश रूप में यही कहना है कि विवेकशील एक नवोदित साहित्यकार हैं। वे न केवल अपनी कविता के माध्यम से वरन पत्रकारिता के माध्यम से भी मां भारती की सेवा कर रहे हैं। वे राष्ट्रोत्थान की कामना से ओत-प्रोत हैं और राष्ट्रीय गौरव से लबालब है। राष्ट्र को, राष्ट्रभाषा को और साहित्य को उनसे बड़ी आशाऐं हैं और इन आशाओं को पूरा करने हेतु विवेकशील में असीम संभावनाऐं भी विद्यमान हैं। मेरी शुभाकांक्षा है कि विवेकशील की आरती पूरे भारत में गूंजे। उनकी यशस्विता (जिसका प्रयास नहीं किया जा रहा)  का प्रकाश दिग-दिगन्त तक फैले। अंत में उनके काव्य की कतिपय पंक्तियां अवतरित करते हुए अपनी इस समीक्षात्मक टिप्पणी का समापन करता हूँ।
        भलाई रास्ता वो जो शिखर के पार जाता है।
        जमाना भी उसे ना रोक पाता हार जाता है।
        संभलना तू पथिक, चलना अकेले ही यहां होगा,
        प्रभू ही साथ में होगा नहीं संसार जाता है।       
                    इति शुभम्
                        -ब्रजराज सिंह तोमर
                        आजाद नगर, हरदोई
                              लेखक- आइना,

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