Wednesday, January 23, 2013

बुद्धि जीवी खो रहा है शब्द के संसार में

लुट रही माता की अस्मत
अब सरे-बाजार में
बुद्धि जीवी खो रहा है
शब्द के संसार में

श्रेष्ठता को सिद्ध कर दें
बस यही इक प्यास है
ढेर हो अभिनन्दनों का
मात्र इतनी आस है

टी.वी., अखबारों में हरदम
बस यही दिखते रहेें
चित्र इनके हर चतुष्पथ
पर सदा सजते रहें

क्योंकि इन पर अजब, अदभुत
शब्द का भण्डार है
देश से क्या, राष्ट्र से क्या,
बस स्वयं से प्यार है

छोड़ अपवादों को सब
बगुलों के जैसे भक्त हैं
मिसरी मिश्रित वाणियाँ हैं
पर हृदय के सख्त हैं

जल रही आतंक अग्नि,
हम झुलसते ताप से
है न कोई योजना,
कैसे बचेंगे पाप से


नृत्य हिंसा का समूचे
विश्व में ही छा रहा
ज्ञानी अपनी-अपनी ढपली,
राग अपने गा रहा

शब्द की आंधी में सत् का
भान भी कैसे रहे
सत्य क्या है, झूठ क्या,
यह ज्ञान भी कैसे रहे

शब्द है यह ब्रह्म,
यदि हो भाव इसके साथ में
और पीड़ा हरने वाले
हल छुपे हों बात में

शोषणों को देखकर हांे
बात में बेबाकियाँ
अन्यथा यह बुद्धि क्या है?
सिर्फ हैं चालाकियाँ

स्वयं का कत्र्तव्य यदि ना
बुद्धि को जँच पायेगा
तुम भले बच जाओ लेकिन
देश ना बच पायेगा

खेद है यदि दे गये हों
शब्द ये पीड़ा तुम्हें
बात मैं भी कह चुका अब
आप चाहें जो कहें....

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